● राजस्थान अपनी कला एवं संस्कृति के लिए भारत ही नही अपितु संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है।
● राजस्थान में विभिन्न जनजातीय निवास करती है और सभी की अपनी एक प्रमुख विशेषता है।
● हम बात करेंगे राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र की जो अपनी वीर गाथाओं के लिए तो प्रसिद्ध है ही पर वहाँ निवासित भील जनजाति के एक प्रसिद्ध लोक नृत्य नाट्य "गवरी" के इतिहास की चर्चा संपूर्ण भारत में की जाती है।
1.) प्रारंभ-: कब, कहाँ और क्यों???
● भीलों द्वारा भाद्रपद माह(अगस्त-सितम्बर) के प्रारंभ से अश्विनी शुक्ला एकादशी तक गवरी में किया जाने वाला नृत्य नाट्य है।
● ये प्रमुख रूप से मेवाड़ क्षेत्र के आस-पास के जिलों उदयपुर, राजसमन्द,भीलवाड़ा और वागड़ के 2 जिलों डूंगरपुर-बांसवाड़ा में अधिक प्रचलित है।
● गवरी लोक नृत्य नाट्य का मुख्य आधार भगवान शिव तथा भस्मासुर की कथा है। यह गोरी पूजा से सम्बन्ध होने के कारण "गवरी" कहलाता है।
● राखी के अगले दिन से इसका प्रदर्शन "सवा माह (40 दिन)" चलता है। इस नाट्य में महिलाओ के पात्रों की भूमिका पुरुष करते है।
● भील जनजाति के लोग 40 दिन तक नियम-संयम से रहते है। मांस-मंदिरा,हरी सब्जी और पैरों में जूतों को त्याग देते है। एक बार अपने घर से निकलने के बाद सवा माह अपने घर नही जाते। सवा माह तक ये नहाते भी नही है।
फोटो सोर्स:-(विकिपीडिया)
2.) गवरी लोक नृत्य-नाट्य की कथा-:
● भगवान शिव एवं भस्मासुर की कहानी "गवरी" की प्रमुख कहानी है।
● भस्मासुर ने कड़ी तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और वरदान के रूप में एक "भस्म-कड़ा" किया था। जिसको पहनकर यदि भस्मासुर किसी पर भी हाथ रखता तो वह भस्म हो जाता।
● भस्मासुर ने उस "भस्म-कड़े" का प्रयोग भगवान शिव पर ही करना चाहा वह भगवान शिव को भस्म कर सके।
● भगवान विष्णु ने भस्मासुर की इस शक्ति को नष्ट करने के लिए मोहनी का मोहक रूप धारण कर भस्मासुर को ही नष्ट कर दिया। अपनी अंतिम इच्छा के रूप में अमरत्व का वरदान माँगा।
● तब से गवरी नाटक-नृत्य इस घटना का जश्न मनाता है। राजस्थान की भील जनजाति ने आज भी इस संस्कृति को सम्पूर्ण भारत में संजोए रखा है।
3.) गवरी नृत्य-नाट्य के प्रमुख पात्र-:
● खेड़ा देवी से भोपा(पुजारी) भाद्रपद कृष्ण प्रथमा को आज्ञा लेता है,पात्र मंदिरों में धोग देते है। समारोह के प्रारंभ में किसी देवी के मंदिर के आगे एक बांस गाढ़कर उसके चारों और मैदान में यह नाट्य पुरे दिन चलता है।
● गवरी मुख्य दो पात्र है भगवान शिव का पात्र "बुढ़िया" तथा माँ पार्वती का पात्र "राईमाता" कहलाता है। राईमाता के दो पात्र होते है।
● इसके अलावा " झामटया" लोक भाषा में कविता बोलता है तथा "खटकड़िया" उसे दोहराता है। पाट भोपा भी प्रमुख पात्र में से है।
● "कुटकडियो" इस नाट्य का सूत्रधार होता
है बाकि अन्य पात्रों को "खेल्ये" कहा जाता है।
● इसके अलावा मानव पात्र बनजारा-बंंजारी, दाणी,नट, खेतुुड़ी, कालूकीर, लाखा बनजारा फत्ता- फत्ती आदि।
● दानव पात्र में प्रमुख "खडलियो भूत" और भियावड़( हटियो) है।
● पशु पात्र में सूअर,शेर और भालू जो की हिंसक एवं क्रूर नही होते है।
4.) श्रृंगार, पहनावा और मुख्य बिंदु-:
● प्रत्येक किरदार को एक अलग तरह का श्रृंगार करके सजाया जाता है। जिसमे लाल,पीले,नीले और काले रंगों का प्रयोग किया जाता है। सभी अपना श्रृंगार स्वयं ही करते है।
● प्रत्येक किरदार के लिए एक मुखोटा बनाया जाता है तथा उनका पहनावा 40 दिन तक एक जैसा रहता है।
● गवरी नृत्य नाट्य राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है जो लोक नाट्यो का मेरुनाट्य कहा जाता है।
● गवरी नृत्य केवल अपने गाँव में ही नही खेला जाता है अपितु प्रत्येक दिन उस गाँव में भी जाता है जहाँ उनके गाँव की बहन-बेटी की शादी करवाई जाती है।
● जिस गाँव में गवरी खेली जाती है उस गाँव में उनके भोजन की व्यवस्था गाँव में शादी की हुई बहन-बेटी के द्वारा ही की जाती है।
फोटो सोर्स-:( विकिपीडिया)
5.) समापन " गलावाण और वलावण"-:
● गवरी का समापन " गलावण और वलावण" की रस्म के साथ होता है।
● माँ पार्वती या गोरजा की प्रतिमा जिस दिन बनाई जाती है उसे "गलावण" अर्थात बनाने का दिन कहते है।
● जिस दिन इस प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है उसे "वलावण" कहते है।
● एक दिन पूर्व सांय को भील समाज के लोग नृत्य करते हुए गाँव के कुम्हार के घर जाते जहाँ पूजा अर्चना कर मिट्टी के हाथी पर गोरजा की प्रतिमा को एक सवारी के रूप में माता जी के मंदिर में लाते है और यहाँ रातभर गवरी खेल का आयोजन होता है।
● गवरी समाप्ति के दो दिन पूर्व जवारे बोए जाती है।
● वल्लावण में गाँव के सभी वर्गों के लोग एकत्रित होकर माँ गोरजा की शोभायात्रा निकालते एवं माँ की प्रतिमा का विसर्जन गाँव के किसी जलाशय में कर दिया जाता है।
● वलावण के बाद गवरी के प्रमुख वाद्य "माँदल" को खूंटी पर रख दिया जाता है।
● इस पर्व पर कलाकारों के लिए रिश्तेदार,परिजन एवं गाँव के लोग पोशाकें, पगड़ी लाते है। जिसे " पहिरावाणी" कहते है।
राजस्थान के इतिहास में भील जनजाति का योगदान अविस्मरणीय है और आज भी "गवरी" नृत्य के माध्यम से भील जनजाति ने राजस्थान को विश्व प्रसिद्ध बना रखा है।
Appreciable work...👍👍
ReplyDeleteVery easily to learn and beautifully presented
ReplyDeleteइस डिजीटल युग में अपने जिस तरह नई पीढ़ी को गवरी जैसे परम्परागत खेल से अवगत करवाया है उसका आभार।
ReplyDeleteGreat nd..appreciable initiative..this will definitely enhance the national integrity..✌✌
ReplyDeleteThe perfect explanation of Gavri.Many learners can get the details of Gavri here which is not available anywhere.
ReplyDeleteGrt.. Indian culture..
ReplyDeletesuperb explanation
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